प्रत्यक्ष हो या न हो, हम न्याय व्यवस्था के संचालक हैं।
अधिवक्ता और अधिकारी के मध्य स्थित सहायक हैं।
जो गिन ना सके उन पन्नों के संरक्षक कार्यपालक हैं।
प्रांरभ हमी हैं, अंत भी हम हैं,
न्यायपालिका के स्तंभ भी हैं।
त्वरित हम हैं विलम्ब भी हम हैं,
न्याय की शक्ति के परिचायक भी हम हैं।
किन्तु
क्यों बोध कराया जाता है, किरदार हमारा सौतेला।
हर कर्म हमारे अर्जुन के, और नाम कर्ण का बतलाया।
बैल कोल्हू का हमसे अच्छा है, अधिकार तो उसका सच्चा है।
ना सीमित होता कार्य हमारे, ना ही समय की सीमा तय हैं।
तय कर दिये हैं लांछन सारे, दोष और मिथ्या सारे।
जूझ-जूझ कर घटते रहते जीवन के सारे पल हमारे।
सन्नाटा भी शोर लगता है,
जब परिवार खड़ा दूसरी ओर लगता है।
भौतिकता की इस दुनिया में, तानों का अंबार लगा है।
अर्जित क्या करते है, और व्यय कैसे होता है।
इसी दुविधा में हर रोज हमारा परिवार पड़ा है।
आज नही तो कल बदलेगा, समय बड़ा बलवान है।
हर खाई पाटी जाएगी, कोई क्षितिज अछूता न होगा।
न्याय के इस मंदिर में, इस न्यायदूत का भी सम्मान है।
वे समय ज्यादा दूर नही, समय बड़ा बलवान है।
(अभिषेक श्रीवास्तव)
वरिष्ठ सहायक
जनपद न्यायालय, गोरखपुर